☀️अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ!

༺꧁‼️हर हर हरे हरे‼️꧂༻*
◾’साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः’ (गीता) भगवान सगुण-साकार को जानने की बात कहते हैं। यहाँ अधिभूत’ नाम भौतिक स्थूल सृष्टि का है, जिसमें तमोगुण की प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षण मात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दीखती है अर्थात् इसमें सत्यता, स्थिरता, सुखरूपता, श्रेष्ठता और आकर्षण दीखता है। यह सत्यता आदि सब-के-सब वास्तव में भगवान् के ही हैं, क्षणभंगुर संसार के नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फ की सत्ता जल के बिना नहीं हो सकती, ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूत की सत्ता भगवान् के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्व से यह संसार भगवत स्वरूप ही है-ऐसा जानना ही अधिभूत के सहित भगवान् को जानना है।

◾’अधिदैव’ नाम सृष्टि की रचना करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी का है, जिनमें रजोगुण की प्रधानता है। भगवान् ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्व से ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं-ऐसा जानना ही अधिदैव के सहित भगवान् को जानना है। ‘अधियज्ञ’ नाम भगवान् विष्णु का है, जो अन्तर्यामी रूप से सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता है। तत्त्व से भगवान् ही अन्तर्यामी रूप से सबमें परिपूर्ण हैं ऐसा जानना ही अधियज्ञ के सहित भगवान् को जानना है। अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् को जानने का तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर के किसी एक अंश में विराट है और उस विराट् में अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड), अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं, जैसा कि अर्जुन ने कहा है-हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण प्राणियों को; जिनकी नाभि से कमल निकला है, उन विष्णु को, कमल पर विराजमान ब्रह्मा को और शंकर आदि को देख रहा हूँ।

◾अतः तत्त्व से अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं। ‘प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः’-जो संसार के भोगों और संग्रह की प्राप्ति-अप्राप्ति में समान रहने वाले हैं तथा संसार से सर्वथा उपरत होकर भगवान् में लगे हुए हैं, वे पुरुष युक्तचेता या जागृत हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकाल में भी मेरे को ही जानते हैं अर्थात् अन्तकाल की पीड़ा आदि में भी वे मेरे में ही अटल रूप से स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्म शरीर में कितनी ही हलचल होनेपर भी कभी किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं होते और परम धाम को प्राप्त होते हैं। *****
☀️थोथा ज्ञान मुश्किलें जान!
♣️थोथा, अधूरा किताबी ज्ञान विनाश का कारण ? फिर वो आध्यात्म हो या लौकिक संसार। आइए जाने क्या कहते है “शिव” बाबा इस बारे मे एक साधक से..? !! अध जल गगरीं छलकत जाये !! ये कहावत आपने सुनी होगी..? आगे बढ़ते हैं –
♣️’अज्ञश्वाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति’..पदों से श्री भगवान कहते हैं कि..जिस पुरुष का विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना भी विवेक जाग्रत् हुआ है, उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है, ऐसे संशय युक्त पुरुष का पारमार्थिक मार्ग से पतन हो जाता है। कारण कि संशय युक्त पुरुष की अपनी बुद्धि तो प्राकृत-शिक्षा रहित है और दूसरे की बात का आदर नहीं करता, फिर ऐसे पुरुष के संशय कैसे नष्ट हो सकते हैं ? और संशय नष्ट हुए बिना उसकी उन्नति भी कैसे हो सकती है ?
♣️अज्ञान को अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है। अधूरे ज्ञान को पूरा ज्ञान मान लेना ही अज्ञान है । कारण कि परमात्मा का ही अंश होने से जीव मे ज्ञान का सर्वथा अभाव हो ही नहीं सकता. केवल नाशवान असत की सत्ता मानकर उसे महत्त्व दे देता है, असत् को असत् मानकर भी असत् से विमुख नहीं होता-यही अज्ञान है। इसलिये मनुष्य में जितना ज्ञान है, यदि उस ज्ञान अनुसार वह अपना जीवन बना ले, तो अज्ञान सर्वथा मिट जायगा और ज्ञान प्रकट हो जायगा । कारण कि अज्ञान की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं।
♣️अलग-अलग बातों को सुनते से ‘यह ठीक है अथवा वह ठीक है?-इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुष का नाम संशयात्मा है। पारमार्थिक मार्ग पर चलने वाले साधक मे संशय पैदा होना स्वाभाविक है; क्योंकि वह किसी भी विषय को पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा। जिस विषय को कुछ नहीं समझते, उस विषय में संशय पैदा नहीं होता और जिस विषय को पूरा समझते हैं, उस विषय में संशय नहीं रहता। अतः संशय सदा अधूरे ज्ञान में ही पैदा होता है, इसी को अज्ञान कहते हैं। इसलिये संशय का उत्पत्न होना हानिकारक नहीं है, प्रत्युत संशय को बनाये रखना और उसे दूर करने की चेष्टा न करना ही हानिकारक है। संशय को दूर करने की चेष्टा न करने पर बह संशय ही सिद्धा्त बन जाता है। कारण कि संशय दूर न होने पर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्ग में सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है। या फिर उस अधूरे ज्ञान को लोगों में परोस कर धार्मिक गतिविधियों के लिए धन एकत्रित कर धर्म व्यापार से जुड़ जाता है, परिणाम स्वरूप उसका पतन हो जाता है। जैसा कि आजकल समाज मे बहुतेरे ज्ञानियों का उदाहरण है। सच्चा आध्यात्म स्वम मे परिपूर्ण है उसकी कोई मांग नही होती। उसे कुछ पाना नही होता न पद ना ही प्रतिष्ठा।
♣️इसलिये अपने भीतर संशय का रहना एक साधक के लिए आत्म घात करने के समान है और यह बुराई है । संशय बुरा लगने पर जिज्ञासा जाग्रति होती है, जिसकी पूर्ति होने पर संशाय-विनाशक ज्ञान की प्राप्ति होती है। साधक का लक्षण है-खोज करना। यदि बह मन और इन्द्रियों से देखी बात को ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। साधक को निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये। जैसे रास्ते पर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये, प्रत्युत यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं, तब वह ठीक अपने लक्ष्य तक पहँच जायगा। ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुए पर सन्तोष न करे, बल्कि जिस विषय को अच्छी तरह नहीं जानता, उसे जानने की चेष्टा करता रहे। इसलिये संशय के रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये, बल्कि जिज्ञासा अग्रि की तरह दहकती रहनी चाहिये। ऐसा होने पर साधक का संशय सन्त-महात्माओं से अथवा ग्रन्थों से किसी-ना- किसी प्रकार से दूर हो ही जाता है। संशय दूर करने वाला कोई न मिले तो भगवत कृपा से उसका संशाय दूर हो जाता है। उसे कोई ना कोई निदान का माध्यम मिल जाता है।..
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